भूमंडलीयकृत विश्व का बनना MCQ उत्तर सहित
CBSE Class 10 सामाजिक विज्ञान
पाठ – 4
भूमंडलीयकृत विश्व का बनना
Mock Test
MCQ
ये ऑनलाइन मॉक टेस्ट अध्याय भूमंडलीयकृत विश्व का बनना ( द मेकिंग ऑफ ऑफ ग्लोबल वर्ल्ड ) के बारे में अपने ज्ञान को समझने और जाँचने में आपकी मदद करता है। एनसीईआरटी कक्षा 10 इतिहास पाठ्यपुस्तक की ऑनलाइन परीक्षा लेने से आप उस अध्याय की गहरी समझ बना पाएंगे। यह आपको योगात्मक मूल्यांकन और औपचारिक मूल्यांकन परीक्षा में भी मदद करेगा।
पुनरावृति नोट्स
भूमंडलीयकृत विश्व का बनना अध्याय 3 दुनिया के निर्माण की चर्चा करता है जिसका एक लंबा इतिहास था – व्यापार का, प्रवासन का, काम की तलाश में लोगों का, पूंजी की आवाजाही आदि का। वैश्वीकरण एक आर्थिक व्यवस्था है जिसकी मुक्त आवाजाही होती है। माल, प्रौद्योगिकी, विचार और दुनिया भर में लोग। वैश्वीकरण, रेशम मार्गों, प्रौद्योगिकी की भूमिका आदि से संबंधित जटिल विषयों को समझने के लिए, कक्षा 10 इतिहास अध्याय 3 के लिए NCERT समाधान आदि आपको सही दृष्टिकोण में मदद करेंगे। ये समाधान छात्रों को अध्याय में शामिल अवधारणाओं की गहरी समझ रखने में मदद करते हैं। सरल भाषा में लिखित इन समाधानों का उल्लेख करके छात्र अपनी शंकाओं को दूर कर सकते हैं।
एक ग्लोबल विश्व: दुनिया के विभिन्न देश व्यापार और विचारों तथा संस्कृति के आदान प्रदान के कारण एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए हैं। आधुनिक युग में आपसी संपर्क तेजी से बढ़ा है लेकिन सिंधु घाटी की सभ्यता के युग में भी विभिन्न देशों के बीच आपसी संपर्क हुआ करता था।
सिल्क रूट :
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चीन को पश्चिमी देशों और अन्य देशों से जोड़ने वाला व्यापार मार्ग सिल्क रूट कहलाता है।
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उस जमाने में कई सिल्क रूट थे।
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सिल्क रूट ईसा युग की शुरुआत के पहले से ही अस्तित्व में था और पंद्रहवीं सदी तक बरकरार था।
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इस सिल्क रूट से होकर चीन के बर्तन दूसरे देशों तक जाते थे।
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यूरोप से एशिया तक सोना और चाँदी इसी सिल्क रूट से आते थे।
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सिल्क रूट के रास्ते ही ईसाई, इस्लाम और बौद्ध धर्म दुनिया के विभिन्न भागों में पहुँच पाए थे।
भोजन की यात्रा :
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नूडल चीन की देन है जो वहाँ से दुनिया के दूसरे भागों तक पहुँचा।
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भारत में हम इसके देशी संस्करण सेवियों को वर्षों से इस्तेमाल करते हैं।
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इसी नूडल का इटैलियन रूप है स्पैगेटी।
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आज के कई आम खाद्य पदार्थ; जैसे आलू, मिर्च टमाटर, मक्का, सोया, मूँगफली और शकरकंद यूरोप में तब आए जब क्रिस्टोफर कोलंबस ने गलती से अमेरिकी महाद्वीपों को खोज निकाला।
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आयरलैंड के किसान आलू पर इतने निर्भर हो चुके थे कि 1840 के दशक के मध्य में किसी बीमारी से आलू की फसल तबाह हो गई तो कई लाख लोग भूख से मर गए।
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उस अकाल को आइरिस अकाल के नाम से जाना जाता है।
बीमारी, व्यापार और फतह:
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सोलहवीं सदी में यूरोप के नाविकों ने एशिया और अमेरिका के देशों के लिए समुद्री मार्ग खोज लिया था। नए समुद्री मार्ग की खोज ने न सिर्फ व्यापार को फैलाने में मदद की बल्कि विश्व के अन्य भागों में यूरोप की फतह की नींव भी रखी।
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यूरोप के लोगों पर चेचक का आक्रमण पहले ही हो चुका था इसलिए उन्होंने इस बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधन क्षमता विकसित कर ली थी।
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अमेरिकियों के शरीर में चेचक बीमारी से लड़ने के लिए प्रतिरोधन क्षमता नहीं थी। जब यूरोप के लोग वहाँ पहुँचे तो वे अपने साथ चेचक के जीवाणु भी ले गए। इस का परिणाम यह हुआ कि चेचक ने अमेरिका के कुछ भागों की पूरी आबादी साफ कर दी। इस तरह यूरोपियन आसानी से अमेरिका पर जीत हासिल कर पाए।
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उन्नीसवीं सदी तक यूरोप में कई समस्याएँ थीं; जैसे गरीबी, बीमारी और धार्मिक टकराव। धर्म के खिलाफ बोलने वाले कई लोग सजा के डर से अमेरिका भाग गए थे। उन्होंने अमेरिका में मिलने वाले अवसरों का भरपूर इस्तेमाल किया और इससे उनकी काफी तरक्की हुई।
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अठारहवीं सदी तक भारत और चीन दुनिया के सबसे धनी देश हुआ करते थे। लेकिन पंद्रहवीं सदी से ही चीन ने बाहरी संपर्क पर अंकुश लगाना शुरु किया था और दुनिया के बाकी हिस्सों से अलग थलग हो गया था।
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चीन के घटते प्रभाव और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव के कारण विश्व के व्यापार का केंद्रबिंदु यूरोप की तरफ शिफ्ट कर रहा था।
उन्नीसवीं शताब्दी (1815 – 1914)
उन्नीसवीं सदी में दुनिया तेजी से बदल रही थी। इस अवधि में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी के क्षेत्र में बड़े जटिल बदलाव हुए। उन बदलावों की वजह से विभिन्न देशों के रिश्तों के समीकरण में अभूतपूर्व बदलाव आए।
अर्थशास्त्री मानते हैं कि आर्थिक आदान प्रदान तीन प्रकार के होते हैं जो निम्नलिखित हैं:
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व्यापार का आदान प्रदान
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श्रम का आदान प्रदान
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पूँजी का आदान प्रदान
वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण:
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यूरोप में भोजन के उत्पादन और उपभोग का बदलता स्वरूप: पारंपरिक तौर से हर देश भोजन के मामले में आत्मनिर्भर बनना चाहता है। लेकिन यूरोप में आत्मनिर्भर होने का मतलब था लोगों के लिए घटिया भोजन मिलना।
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अठाहरवीं सदी में यूरोप की जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई। इसके कारण भोजन की माँग में भी भारी इजाफा हुआ।
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जमींदारों के दबाव के कारण सरकार ने मक्के के आयात पर कड़े नियंत्रण लगा दिए थे। जिसे कॉर्न लॉ कहते है।
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इससे ब्रिटेन में भोजन की कीमतें और बढ़ गईं। इसके बाद उद्योगपतियों और शहरी लोगों ने सरकार को कॉर्न लॉ समाप्त करने के लिए बाधित कर दिया।
कॉर्न लॉ हटने के प्रभाव:
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कॉर्न लॉ के हटने का मतलब था कि ब्रिटेन में जिस भाव पर भोजन का उत्पादन होता था उससे कहीं सस्ते दर पर उसे आयात किया जा सकता था। ब्रिटेन के किसानों द्वारा उगाए जाने वाले अनाज इस स्थिति में नहीं थे कि सस्ते आयात के आगे टिक सकें।
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खेती की जमीन का एक बड़ा हिस्सा खाली छोड़ दिया गया और लोग भारी संख्या में बेरोजगार हो गए।
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लोग एक बड़ी संख्या में काम कि तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगे। कई लोग विदेशों की तरफ भी पलायन कर गए।
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गिरते दामों की वजह से ब्रिटेन में खाने पीने की चीजों की माँग बढ़ने लगी। साथ में औद्योगीकरण से लोगों की आमदनी भी बढ़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन को और भोजन आयात करने की जरूरत पड़ने लगी। इस माँग को पूरा करने के लिए पूर्वी यूरोप, अमेरिका, रूस और ऑस्ट्रेलिया में जमीन का एक बड़ा भाग साफ किया जाने लगा।
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अनाज को बंदरगाहों तक सही समय पर पहुँचाना भी जरूरी हो गया था। इसके लिए रेल लाइनें बिछाई गईं ताकि खेत से अनाज को सीधा बंदरगाहों तक पहुँचाया जा सके। खेत पर काम करने के लिए आसपास नई आबादी बसाने की जरूरत भी महसूस हुई। इन सब जरूरतों को पूरा करने के लिए लंदन जैसे वित्तीय केंद्रों से इन भागों तक पूँजी भी आने लगी।
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अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में मजदूरों की कमी पड़ रही थी। इस कमी को पूरा करने के लिए भारी संख्या में लोग पलायन करके वहाँ पहुँचने लगे।
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उन्नीसवीं सदी में लगभग पाँच करोड़ लोग यूरोप से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया पहुँच चुके थे। इस दौरान पूरी दुनिया के विभिन्न भागों से लगभग 15 करोड़ लोगों का पलायन हुआ।
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1890 का दशक आते-आते कृषी क्षेत्र में एक वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण हो चुका था। इसके साथ श्रम के प्रवाह, पूँजी के प्रवाह और तकनीकी बदलाव के क्षेत्र में बड़े ही जटिल परिवर्तन हुए।
तकनीक की भूमिका :
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इस दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण में टेकनॉलोजी ने एक अहम भूमिका निभाई।
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इस युग के कुछ मुख्य तकनीकी खोज हैं रेलवे, स्टीम शिप और टेलिग्राफ।
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रेलवे ने बंदरगाहों और आंतरिक भूभागों को आपस में जोड़ दिया।
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स्टीम शिप के कारण माल को भारी मात्रा में अतलांतिक के पार ले जाना आसान हो गया।
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टेलीग्राफ की मदद से संचार व्यवस्था में तेजी आई और इससे आर्थिक लेन देन बेहतर रूप से होने लगे।
मीट का व्यापार:
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मीट का व्यापार इस बात का बहुत अच्छा उदाहरण है कि नई टेक्नॉलोजी से किस तरह आम आदमी का जीवन बेहतर हो जाता है।
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1870 के दशक तक जानवरों को जिंदा ही अमेरिका से यूरोप ले जाया जाता था। जिंदा जानवरों को जहाज से ले जाने में कई परेशानियाँ होती थीं। वे ज्यादा जगह लेते थे और कई जानवर रास्ते में बीमार हो जाते थे या मर भी जाते थे। इसके कारण यूरोप के ज्यादातर लोगों के लिए मीट एक विलासिता की वस्तु ही थी।
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रेफ्रिजरेशन टेक्नॉलोजी ने तस्वीर बदल दी।
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अब जानवरों को अमेरिका में हलाल किया जा सकता था और प्रोसेस्ड मीट को यूरोप ले जाया जा सकता था। इससे शिप में उपलब्ध जगह का बेहतर इस्तेमाल संभव हो पाया। इससे यूरोप में मीट अधिक मात्रा में उपलब्ध होने लगा और कीमतें गिर गईं। अब आम आदमी भी नियमित रूप से मीट खा सकता था।
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लोगों का पेट भरा होने के कारण देश में सामाजिक शाँति आ गई। अब ब्रिटेन के लोग देश की उपनिवेशी महात्वाकाँछा को गले उतारने को तैयार लगने लगे।
उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध और उपनिवेशवाद :
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एक तरफ व्यापार के फैलने से यूरोप के लोगों की जिंदगी बेहतर हो गई तो दूसरी तरफ उपनिवेशों के लोगों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा।
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जब अफ्रिका के आधुनिक नक्शे को गौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ज्यादातर देशों की सीमाएँ सीधी रेखा में हैं। ऐसा लगता है जैसे किसी छात्र ने सीधी रेखाएँ खींच दी हो।
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1885 में यूरोप की बड़ी शक्तियाँ बर्लिन में मिलीं और अफ्रिकी महादेश को आपस में बाँट लिया। इस तरह से अफ्रिका के ज्यादातर देशों की सीमाएँ सीधी रेखाओं में बन गईं।
रिंडरपेस्ट या मवेशियों का प्लेग:
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रिंडरपेस्ट मवेशियों में होने वाली एक बीमारी है।
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अफ्रिका में रिंडरपेस्ट के उदाहरण से पता चलता है कि किस तरह से एक बीमारी किसी भूभाग में शक्ति के समीकरण को भारी तौर पर प्रभावित कर सकती है।
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अफ्रिका वैसा महादेश था जहाँ पर जमीन और खनिजों का अकूत भंडार था।
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यूरोपीय लोग खनिज और बागानों से धन कमाने के लिए अफ्रिका पहुँचे थे। लेकिन उन्हें वहाँ मजदूरों की भारी कमी झेलनी पड़ी।
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वहाँ एक और बड़ी समस्या ये थी कि स्थानीय लोग मेहनताना देने के बावजूद काम नहीं करना चाहते थे। दरअसल अफ्रीका की आबादी बहुत कम थी और वहाँ उपलब्ध संसाधनों की वजह से लोगों की जरूरतें आसानी से पूरी हो जाती थी। उन्हें इस बात की कोई जरूरत ही नहीं थी कि पैसे कमाने के लिए काम करें।
यूरोपीय लोगों ने अफ्रिका के लोगों को रास्ते पर लाने के लिए कई तरीके अपनाए। उनमें से कुछ नीचे दिये गये हैं।
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लोगों पर इतना अधिक टैक्स लगाया गया कि उसे केवल वो ही अदा कर पाते थे जो खानों और बागानों में काम करते थे।
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उत्तराधिकार के कानून को बदल दिया गया। अब किसी भी परिवार का एक ही सदस्य जमीन का उत्तराधिकारी बन सकता था। इससे अन्य लोगों को मजदूरी करने पर बाध्य होना पड़ा।
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खान में काम करने वाले मजदूरों को कैंपस के भीतर ही रखा जाता था और उन्हें खुला घूमने की छूट नहीं थी।
रिंडरपेस्ट का प्रकोप:
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रिंडरपेस्ट का अफ्रिका में आगमन 1880 के दशक के आखिर में हुआ था।
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यह बीमारी उन घोड़ों के साथ आई थी जो ब्रिटिश एशिया से लाए गए थे।
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ऐसा उन इटैलियन सैनिकों की मदद के लिए किया गया था जो पूर्वी अफ्रिका में एरिट्रिया पर आक्रमण कर रहे थे।
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रिंडरपेस्ट पूरे अफ्रिका में किसी जंगल की आग की तरह फैल गई।
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1892 आते आते यह बीमारी अफ्रिका के पश्चिमी तट तक पहुँच चुकी थी। इस दौरान रिंडरपेस्ट ने अफ्रिका के मवेशियों की आबादी का 90% हिस्सा साफ कर दिया।
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अफ्रिकियों के लिए मवेशियों का नुकसान होने का मतलब था रोजी रोटी पर खतरा। अब उनके पास खानों और बागानों में मजदूरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
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इस तरह से मवेशियों की एक बीमारी ने यूरोपियन को अफ्रिका में अपना उपनिवेश फैलाने में मदद की।
भारत से बंधुआ मजदूरों का पलायन :
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वैसे मजदूर जो किसी खास मालिक के लिए किसी खास अवधि के लिए काम करने को प्रतिबद्ध होते हैं बंधुआ मजदूर कहलाते हैं।
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आधुनिक बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत और तामिल नाडु के सूखाग्रस्त इलाकों से कई गरीब लोग बंधुआ मजदूर बन गए।
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इन लोगों को मुख्य रूप से कैरेबियन आइलैंड, मॉरिशस और फिजी भेजा गया। कई को सीलोन और मलाया भी भेजा गया। भारत में कई बंधुआ मजदूरों को असम के चाय बागानों में भी काम पर लगाया गया।
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एजेंट अक्सर झूठे वादे करते थे और इन मजदूरों को ये भी पता नहीं होता था कि वे कहाँ जा रहे हैं।
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इन मजदूरों के लिए नई जगह पर बड़ी भयावह स्थिति हुआ करती थी। उनके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं होते थे और उन्हें कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता था।
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1900 के दशक से भारत के राष्ट्रवादी लोग बंधुआ मजदूर के सिस्टम का विरोध करने लगे थे। इस सिस्टम को 1921 में समाप्त कर दिया गया।
विदेशों में भारतीय व्यवसायी :
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भारत के नामी बैंकर और व्यवसायियों में शिकारीपुरी श्रौफ और नट्टुकोट्टई चेट्टियार का नाम आता है।
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वे दक्षिणी और केंद्रीय एशिया में कृषि निर्यात में पूँजी लगाते थे।
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भारत में और विश्व के विभिन्न भागों में पैसा भेजने के लिए उनका अपना ही एक परिष्कृत सिस्टम हुआ करता था।
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भारत के व्यवसायी और महाजन उपनिवेशी शासकों के साथ अफ्रिका भी पहुँच चुके थे।
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हैदराबाद के सिंधी व्यवसायी तो यूरोपियन उपनिवेशों से भी आगे निकल गये थे। 1860 के दशक तक उन्होंने पूरी दुनिया के महत्वपूर्ण बंदरगाहों फलते फूलते इंपोरियम भी बना लिये थे।
भारतीय व्यापार, उपनिवेश और वैश्विक सिस्टम:
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भारत से उम्दा कॉटन के कपड़े वर्षों से यूरोप निर्यात होता रहे थे। लेकिन इंडस्ट्रियलाइजेशन के बाद स्थानीय उत्पादकों ने ब्रिटिश सरकार को भारत से आने वाले कॉटन के कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य किया।
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इससे ब्रिटेन में बने कपड़े भारत के बाजारों में भारी मात्रा में आने लगे।
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1800 में भारत के निर्यात में 30% हिस्सा कॉटन के कपड़ों का था।
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1815 में यह गिरकर 15% हो गया और 1870 आते आते यह 3% ही रह गया। लेकिन 1812 से 1871 तक कच्चे कॉटन का निर्यात 5% से बढ़कर 35% हो गया।
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इस दौरान निर्यात किए गए सामानों में नील (इंडिगो) में तेजी से बढ़ोतरी हुई। भारत से सबसे ज्यादा निर्यात होने वाला सामान था अफीम जो मुख्य रूप से चीन जाता था।
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भारत से ब्रिटेन को कच्चे माल और अनाज का निर्यात बढ़ने लगा और ब्रिटेन से तैयार माल का आयात बढ़ने लगा। इससे एक ऐसी स्थिति आ गई जब ट्रेड सरप्लस ब्रिटेन के हित में हो गया।
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इस तरह से बैलेंस ऑफ पेमेंट ब्रिटेन के फेवर में था। भारत के बाजार से जो आमदनी होती थी उसका इस्तेमाल ब्रिटेन अन्य उपनिवेशों की देखरेख करने के लिए करता था और भारत में रहने वाले अपने ऑफिसर को ‘होम चार्ज’ देने के लिए करता था।
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भारत के बाहरी कर्जे की भरपाई और रिटायर ब्रिटिश ऑफिसर (जो भारत में थे) का पेंशन का खर्चा भी होम चार्ज के अंदर ही आता था।
युद्ध काल की अर्थव्यवस्था :
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पहले विश्व युद्ध ने पूरी दुनिया को कई मायनों में झकझोर कर रख दिया था। लगभग 90 लाख लोग मारे गए और 2 करोड़ लोग घायल हो गये।
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मरने वाले या अपाहिज होने वालों में ज्यादातर लोग उस उम्र के थे जब आदमी आर्थिक उत्पादन करता है। इससे यूरोप में सक्षम शरीर वाले कामगारों की भारी कमी हो गई। परिवारों में कमाने वालों की संख्या कम हो जाने के कारण पूरे यूरोप में लोगों की आमदनी घट गई।
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ज्यादातर पुरुषों को युद्ध में शामिल होने के लिए बाध्य होना पड़ा लिहाजा कारखानों में महिलाएँ काम करने लगीं। जो काम पारंपरिक रूप से पुरुषों के काम माने जाते थे उन्हें अब महिलाएँ कर रहीं थीं।
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इस युद्ध के बाद दुनिया की कई बड़ी आर्थिक शक्तियों के बीच के संबंध टूट गये।
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ब्रिटेन को युद्ध के खर्चे उठाने के लिए अमेरिका से कर्ज लेना पड़ा। इस युद्ध ने अमेरिका को एक अंतर्राष्ट्रीय कर्जदार से अंतर्राष्ट्रीय साहूकार बना दिया।
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अब विदेशी सरकारों और लोगों की अमेरिका में संपत्ति की तुलना मंअ अमेरिकी सरकार और उसके नागरिकों की विदेशों में ज्यादा संपत्ति थी।
युद्ध के बाद के सुधार :
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जब ब्रिटेन युद्ध में व्यस्त था तब जापान और भारत में उद्योग का विकास हुआ।
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युद्ध के बाद ब्रिटेन को अपना पुराना दबदबा कायम करने में परेशानी होने लगी। साथ ही ब्रिटेन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जापान से टक्कर लेने में अक्षम पड़ रहा था।
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युद्ध के बाद ब्रिटेन पर अमेरिका का भारी कर्जा लद चुका था।
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युद्ध के समय ब्रिटेन में चीजों की माँग में तेजी आई थी जिससे वहाँ की अर्थव्यवस्था फल फूल रही थी। लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद माँग में गिरावट आई। युद्ध के बाद ब्रिटेन के 20% कामगारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
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युद्ध के पहले पूर्वी यूरोप गेहूँ का मुख्य निर्यातक था। लेकिन युद्ध के दौरान पूर्वी यूरोप के युद्ध में शामिल होने की वजह से कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया गेहूँ के मुख्य निर्यातक के रूप में उभरे थे।
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जैसे ही युद्ध खत्म हुआ पूर्वी यूरोप ने फिर से गेहूँ की सप्लाई शुरु कर दी। इसके कारण बाजार में गेहूँ की अधिक खेप आ गई और कीमतों में भारी गिरावट हुई। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तबाही आ गई।
बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग की शुरुआत :
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अमेरिका की अर्थव्यवस्था में युद्ध के बाद के झटकों से तेजी से निजात मिलने लगी।
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1920 के दशक में बड़े पैमाने पर उत्पादन अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मुख्य पहचान बन गई।
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फोर्ड मोटर के संस्थापक हेनरी फोर्ड मास प्रोडक्शन के जनक माने जाते हैं।
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बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से उत्पादन क्षमता बढ़ी और कीमतें घटीं।
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अमेरिका के कामगार बेहतर कमाने लगे इसलिए उनके पास खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे थे। इससे विभिन्न उत्पादों की माँग तेजी से बढ़ी।
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कार का उत्पादन 1919 में 20 लाख से बढ़कर 1929 में 50 लाख हो गया।
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इसी तरह से बजाजी सामानों; जैसे रेफ्रिजरेटर, वाशिंग मशीन, रेडियो, ग्रामोफोन, आदि की माँग भी तेजी से बढ़ने लगी।
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अमेरिका में घरों की माँग में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। आसान किस्तों पर कर्ज की सुविधा के कारण इस माँग को और हवा मिली।
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इस तरह से अमेरिकी अर्थव्यवस्था खुशहाल हो गई।
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1923 में अमेरिका ने दुनिया के अन्य हिस्सों को पूँजी निर्यात करना शुरु किया और सबसे बड़ा विदेशी साहूकार बन गया।
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इससे यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी सुधरने का मौका मिला और पूरी दुनिया का व्यापार अगले छ: वर्षों तक वृद्धि दिखाता रहा।
विश्वव्यापी मंदी
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जरूरत से ज्यादा कृषि उत्पादन: 1920 के दशक में कृषि क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा उत्पादन एक अहम समस्या थी। कृषि उत्पादों की अत्यधिक सप्लाई के कारण कीमतें गिर रही थीं। किसानों ने इसकी भरपाई के लिए और भी अधिक उत्पादन करना शुरु किया। इसके कारण बाजार में कृषि उत्पादों की बाढ़ आ गई; जिससे कीमतें और नीचे गिरीं। खरीददारों की कमी के कारण कृषि उत्पाद सड़ने लगे।
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अमेरिका द्वारा कर्ज में कमी: कई यूरोपीय देश कर्जे के लिए अमेरिका पर बुरी तरह से निर्भर थे। लेकिन अमेरिका के साहूकार थोड़ी ही बात पर घबराहट दिखाने लगते थे। 1928 के शुरुआती छ: महीने में अमेरिका द्वारा दिये गये कर्ज की राशि थी 100 करोड़ डॉलर। लेकिन एक साल के भीतर यह राशि घटकर 24 करोड़ रह गई। अमेरिका द्वारा हाथ खींच लिए जाने के कारण कई देशों की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा।
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इससे कई बैंक तबाह हो गये और यूरोप की मुद्राएँ भी बर्बाद हो गईं।
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इस दौरान ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग में भी भारी गिरावट आई।
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लैटिन अमेरिका का कृषि बाजार तेजी से लुढ़क गया।
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अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था को संरक्षण देने के लिए आयात पर लगने वाली ड्यूटी को दोगुना कर दिया। इससे भी विश्व की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा।
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आर्थिक मंदी का सबसे बुरा असर अमेरिका पर पड़ा।
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कीमतें गिरती जा रहीं थीं और अर्थव्यवस्था का बुरा हाल था।
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अमेरिकी बैंकों ने कर्जे देने मे कमी कर दी और पुराने कर्जों को वापस बुलाना शुरु किया।
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लोगों की आमदनी घट गई और ज्यादातर लोग ऐसी स्थिति में आ गए कि पुराने कर्जे चुकाने में असमर्थ हो गए। बेरोजगारी बढ़ गई और बैंकों के लिए कर्ज के पैसे वसूलना असंभव होने लगा था।
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अमेरिका में हजारों बैंक दिवालिया हो गए। 1933 आते आते 4000 से अधिक बैंक बंद हो गए। 1929 से 1932 के बीच लगभग 110,000 कंपनियाँ बंद हो गईं।
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1935 से ज्यादातर देशों में थोड़ा सुधार शुरु हुआ।
आर्थिक मंदी और भारत :
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आर्थिक मंदी से भारत की अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ा।
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1928 से 1934 के बीच भारत का आयात और निर्यात घटकर आधा हो गया।
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इसी दौरान भारत में गेहूँ की कीमतों में 50% की कमी आई।
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कृषि उत्पादों की घटती कीमतों के बावजूद सरकार किसानों से पहले दर पर ही लगान वसूलना चाहती थी।
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इस तरह से इस स्थिति में किसानों की हालत सबसे ज्यादा खराब थी।
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कई किसानों को अपनी जमापूँजी निकालना पड़ा और जमीन और जेवर भी बेचने पड़े। इस तरह से भारत महँगी धातुओं का निर्यातक बन गया।
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भारत के शहरी क्षेत्रों में आर्थिक मंदी का उतना असर नहीं पड़ा। कीमतें घटने के कारण शहर में रहने वाले लोगों का जीवन पहले से आसान हो गया था।
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भारत के राष्ट्रवादी नेताओं के दवाब के कारण उद्योगों को अधिक संरक्षण मिलने लगा जिससे उद्योग में अधिक निवेश हुआ।
युद्ध के बाद के समझौते :
दूसरा विश्व युद्ध पहले के युद्धों की तुलना में बिलकुल अलग था। इस युद्ध में आम नागरिक अधिक संख्या में मारे गये थे और कई महत्वपूर्ण शहर बुरी तरह बरबाद हो चुके थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद की स्थिति में सुधार मुख्य रूप से दो बातों से प्रभावित हुए थे।
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पश्चिम में अमेरिका का एक प्रबल आर्थिक, राजनैतिक और सामरिक शक्ति के रूप में उदय
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सोवियत यूनियन का एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था से विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तन
विश्व के नेताओं की मीटिंग हुई जिसमें युद्ध के बाद के संभावित सुधारों पर चर्चा की गई। उन्होंने दो बातों पर ज्यादा ध्यान दिया जिन्हें नीचे दिया गया है।
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औद्योगिक देशों में आर्थिक संतुलन को बरकरार रखना और पूर्ण रोजगार दिलवाना
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पूँजी, सामान और कामगारों के प्रवाह पर बाहरी दुनिया के प्रभाव को नियंत्रित करना
ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन :
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1944 की जुलाई में अमेरिका के न्यू हैंपशायर के ब्रेटन वुड्स नामक जगह पर यूनाइटेड नेशंस मॉनिटरी ऐंड फिनांशियल कॉन्फ्रेंस हुआ।
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इस कॉन्फ्रेंस में इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की स्थापना हुई।
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इस संस्था को सदस्य देशों के बाहरी नफे और नुकसान की देखभाल के लिये बनाया गया।
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युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण की फंडिंग के लिए इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट की स्थापना की गई।
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इसे वर्ल्ड बैंक के नाम से भी जाना जाता है।
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आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक को ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन भी कहा जाता है।
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इसलिए युद्ध के बाद की आर्थिक प्रणाली को ब्रेटन वुड्स सिस्टम भी कहा जाता है।
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आएमएफ और वर्ल्ड बैंक ने 1947 में अपना काम शुरु कर दिया। इन संस्थाओं में लिए जाने वाले निर्णय को पश्चिमी औद्योगिक शक्तियाँ कंट्रोल करती थीं। अहम मुद्दों पर तो अमेरिका का वीटो चलता था।
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ब्रेटन वुड्स सिस्टम का आधार था विभिन्न मुद्राओं के लिए एक निर्धारित विनिमय दर।
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डॉलर की कीमत को सोने की कीमत से जोड़ा गया जिसमें एक आउंस सोने की कीमत थी 35 डॉलर।
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अन्य मुद्राओं को डॉलर के मुकाबले अलग-अलग निर्धारित दरों पर रखा गया।
युद्ध के बाद के शुरुआती साल:
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ब्रेटन वुड्स सिस्टम ने पश्चिम के औद्योगिक देशों और जापान में एक अप्रत्याशित आर्थिक विकास के युग की शुरुआत कर दी।
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1950 से 1970 के बीच विश्व का व्यापार 8% की दर से बढ़ा और आमदनी लगभग 5% की दर से बढ़ी। ज्यादातर औद्योगिक देशों में बेरोजगारी 5% से भी कम थी। इससे पता चलता है कि इस अवधि में कितनी आर्थिक स्थिरता आई थी।
उपनिवेशों का अंत और आजादी :
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दूसरे विश्व युद्ध के दो दशकों के भीतर कई उपनिवेश आजाद हो गए और नए राष्ट्र के रूप में सामने आये।
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शोषण के एक लंबे इतिहास के कारण ये देश भारी आर्थिक संकट में थे। शुरुआती दौर में ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन इस स्थिति में नहीं थे कि इन देशों की माँग को पूरा कर सकें।
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इस बीच यूरोप और जापान ने तेजी से तरक्की कर ली थी और ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन से स्वतंत्र हो गये थे।
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1950 के दशक के आखिर में आकर इन इंस्टिच्यूशन ने दुनिया के विकासशील देशों की ओर ध्यान देना शुरु किया।
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ये संस्थाएँ पुरानी उपनिवेशी ताकतों के नियंत्रण में थी। इसलिए ज्यादातर विकासशील देशों पर अभी भी इस बात का खतरा था कि पुरानी उपनिवेशी ताकतें उनका शोषण कर सकती हैं।
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एक नए आर्थिक ढ़ाँचे की माँग रखने के लिए इन देशों ने G – 77 (77 देशों का समूह) बनाया। उनकी माँगें थीं; अपने प्राकृतिक संसाधनों पर सही मायने में नियंत्रण, कच्चे माल की सही कीमत और विकसित बाजारों में बेहतर पकड़।
ब्रेटन वुड्स का अंत और भूमंडलीकरण:
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1960 आते आते विदेशों में अधिक दखलअंदाजी करने के कारण अमेरिका की ताकत में कमी आने लगी थी।
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सोने की तुलना में डॉलर अपनी कीमत को बचा नहीं पा रहा था।
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इस तरह से निर्धारित विनिमय दर की प्रणाली समाप्त हुई और अस्थाई विनिमय दर की परिपाटी शुरु हुई।
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1970 के दशक के मध्य के बाद से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था कई मायने में बदल गई।
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पहले विकासशील देश किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संस्था से वित्तीय सहायता की माँग कर सकते थे।
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लेकिन अब उन्हें पश्चिम के कॉमर्शियल बैंकों और प्राइवेट लेंडिंग संस्थाओं से कर्ज लेने के बाध्य होना पड़ता था।
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इससे कई बार विकासशील देशों में कर्जे की समस्या, बेरोजगारी और गिरती आमदनी की समस्या खड़ी हो जाती थी।
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कई अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों को इस तरह की कठिनाइयों से गुजरना पड़ा।
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1949 की क्रांति के बाद चीन बाकी दुनिया से अलग थलग था। अब चीन ने भी नई आर्थिक नीतियों को अपनाना शुरु कर दिया और विश्व की अर्थव्यवस्था के करीब आने लगा।
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कई पूर्वी यूरोपियन देशों में सोवियत स्टाइल की कम्यूनिज्म के पतन के बाद कई नए देश भी विश्व की नई अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गये।
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चीन, भारत, ब्राजील, फिलिपींस, मलेशिया, आदि देशों में पारिश्रमिक काफी कम थी। इसलिए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इन देशों को अपने उत्पाद बनाने के लिए इस्तेमाल करने लगीं।
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भारत बिजनेस प्रॉसेस आउटसोर्सिंग का एक महत्वपूर्ण हब बन गया। पिछले दो दशकों में कई विकासशील देशों ने तेजी से वृद्धि की है। भारत, चीन और ब्राजील इसके बेहतरीन उदाहरण हैं।
सारांश:-
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सोलहवीं सदी में यूरोपीय जहाज़ियों ने एशिया तक का रास्ता ढूँढने के बाद अमेरिका पहुंचे।
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भारतीय उपमहाद्वीप, तरह तरह के सामान, ज्ञान और परंपरायों के अहम बिंदु थे।
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खोज के बाद अमेरिका में बेहिसाब फसलें, खनिज और विशाल भूमि से जीवन का रूप रंग बदलने लगा।
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पेरू और मैक्सिकों में मौजूद खानों से निकलने वाली कीमती धातुओं ने यूरोप, की संपदा और पश्चिम एशिया के साथ व्यापार को बढ़ाया।
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पूर्तगाली और स्पेनिश सेनाओं की विजय का सिलसिला शुरू, स्पेनिश लोगों द्वारा चेचक के कीटाणु का फैलाव और अमेरिका के लोगों के शरीर में रोग से लड़ने की प्रतिरोधी क्षमता नहीं थी।
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ब्रिटेन में अनाज के आयात पर अनाज कानूनों द्वारा पाबंदी।
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कार्न लॉ के वापिस लेने के बाद कम कीमतों पर खाद्य पदार्थों का आयात।
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किसानों की हालत पर प्रभाव क्योंकि वे आयातित माल की कीमत का मुकाबला नहीं कर सकते थे। खेती बन्द हो गई।
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खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट आयी तो ब्रिटेन में उपभोग का स्तर बढ़ा।
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औद्योगिक प्रगति काफी तेज, आय में वृद्धि, अनाज ज्यादा मात्र में आयात हुआ।
बे्रटन वुडस संस्थान
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विदेशी व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए ब्रेटन वुडस नामक स्थान पर जुलाई 1944 में अमेरिका के न्यू हैम्पशर में सम्मेलन।
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संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन।
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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्थापना।
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विश्व युद्ध के बाद पुननिर्माण के लिए पैसे जुटाना।
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विश्व बैंक और आई एम एफ को ब्रेटन वुडस ट्विन या जुडवाँ संतान का नाम दिया।
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अमेरिका को विश्व बैंक और आई एम एफ में वीटों की शक्ति।
नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली – N.I.E.O.
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विकासशील देशों को अपने संसाधनों पर नियंत्रण मिले।
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विकास के लिए अधिक सहायता मिलें।
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कच्चे माल के सही दाम मिलें,
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तैयार माल को विकसित देशों के बाजारों में पहुँच मिले।
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N.I.E.O. के लिए आवाज उठाई और समूह जी-77 के रूप में संगठित हो गए जब पश्चिमी अर्थव्यवस्था से उन्हें कोई लाभ न मिला।
CBSE Class 10 इतिहास
महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर पाठ – 4
भूमंडलीकृत विश्व का बनना
प्रश्न 1. मित्र राष्ट्रों के नाम बताइए ?
उत्तर- ब्रिटेन, फ्राँस और रूस।
प्रश्न 2. दक्षिणी अमेरिका में एल डोराडो क्या है ?
उत्तर- किंवदंतियों की बदौलत सोने का शहर।
प्रश्न 3. किस देश के पास अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक में वीटो का प्रभावशाली अधिकार है ?
उत्तर- संयुक्त राज्य अमेरिका।
प्रश्न 4. लगभग 500 साल पहले किस फसल के बारे में हमारे पूर्वजों को ज्ञान नहीं था ?
उत्तर- आलू।
प्रश्न 5. कौन से दो आविष्कारों ने 19 वीं सदी के विश्व में परिवर्तन किया ?
उत्तर- (1) भाप इंजन
(2) रेलवे
प्रश्न 6. 1928 से 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत तक क्यों गिर गई?
उत्तर- महामंदी के कारण
प्रश्न 7. अमेरिका महाद्वीप की खोज किसने की ?
उत्तर- क्रिस्टोफर कोलंबस।
प्रश्न 8. उस यूरोपीय देश का नाम लिखी, जिसने अमेरिका पर विजय प्राप्त की ?
उत्तर- स्पेन
प्रश्न 9. भूमंडलीकृत विश्व के बनने में मदद देने वाले कोई दो कारक बताइए।
उत्तर- (1) व्यापार
(2) काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते लोग
(3) पूंजी
लघु/दीर्घ प्रश्न (3/5)
प्रश्न 1. तीन उदाहरण देकर दर्शायें कि अमेरिका जाने वाले नये समुद्री रास्तों की खोज के बाद विश्व में बदलाव आया?
उत्तर-
- आलू का इस्तेमाल शुरू करने पर यूरोप के गरीबों की जिन्दगी में बदलाव आया। उनका भोजन बेहतर हो गया और औसत उम्र बढ़ने लगी।
- गुलामों का व्यापार शुरू हो गया।
- यूरोप में धार्मिक टकराव होते रहते थे इसलिये हजारो लोग यूरोप से भागकर अमेरिका चले गये।
प्रश्न 2. 19 वीं सदी में हजारों लोगों द्वारा यूरोप से भागकर अमेरिका जाने के क्या कारण थे?
उत्तर-
- कार्न-ला कानून को समाप्त करने के बाद कम कीमतो में सामान का आयात
- भयानक बिमारियों का फैलना
- धार्मिक टकराव
प्रश्न 3. 19 वीं सदी में अर्थव्यवस्था को आकार देने में कौन-कौन से कारको ने सहायता की?
उत्तर-
- सामाजिक कारक – खेती करने के लिये अधिक संख्या में लोगों को होना।
- आर्थिक कारक – औपनिवेशिकरण ने निवेश को बढ़ावा दिया।
- तकनीकी कारक – मजबूत परिवहन नेटवर्क की आवश्यकता पर बल।
प्रश्न 4. रिंडरपेस्ट क्या था? इसने अफ्रीकी लोगों को किस तरह प्रभावित किया?
उत्तर-
- खतरनाक संक्रामक रोग/ मवेशी प्लेग
- 90 प्रतिशत से अधिक अफ्रीकी मवेशी मारे गये
- आजीविका का नष्ट हो जाना
प्रश्न 5. सूती वस्त्र उद्योगों के औद्योगिकरण का ब्रिटेन में क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
- आयात शुल्क के कारण ब्रिटेन में भारतीय कपास के आयात में तेजी से कमी आई।
- भारतीय वस्त्रों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
- बाद में निर्माण किये गये सूती उत्पादों के निर्यात में कमी आने के पश्चात ब्रिटिश निर्माताओं ने बहुत ही सस्ती कीमत पर भारत से कपास का आयात आरम्भ कर दिया।
प्रश्न 6. यूरोपीय लोगों के अफ्रीका की और आकर्षित होने के मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर-
- अफ्रीका में विशाल भूक्षेत्र तथा खनिज के भंडारों का होना।
- यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करने और खादानों का दोहन करना चाहते थे ताकि उन्हें यूरोप भेजा जा सके।
- अफ्रीका में औद्योगिक क्रान्ति नहीं आई थी।
- अफ्रीका सैन्य शक्ति में भी पिछड़ा हुआ था।
प्रश्न 7. कार्न-ला क्या था? उसे क्यों समाप्त किया गया इसकी समाप्ती के क्या परिणाम हुये?
उत्तर-
- मक्का के आयात पर पाबन्दी – कार्न – ला
- यह भू स्वामियों के दबाव में किया गया।
- लोग इस कानून से नाराज थे क्योंकि खाद्य पदार्थो की कीमतें बहुत ऊंची थी।
- कार्न-ला की समाप्ति के बाद ब्रिटेन में आयतित खाद्य पदार्थो की लागत यहाँ पैदा होने वाले खाद्य पदार्थो से भी कम थी। जिसके कारण ब्रिटिश किसान आयतित माल की कीमत का मुकाबला नही कर सकते थे।
प्रश्न 8. व्यापार अधिशेष से क्या अभिप्राय है? भारत के साथ ब्रिटेन व्यापार अधिशेष की अव्यवस्था में क्यो रहा?
उत्तर- जब निर्यात मूल्य आयात मूल्य से अधिक होता है तो इसे व्यापार अधिशेष कहा जाता है।
- 19 वीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटेन के बने माल की अधिकता हो गई थी। भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को भेजे जाने वाले खाद्यान्न एवं कच्चे मालों के निर्यात में इजाफा हुआ।
- लेकिन जो माल भारत भेजा जाता था उसकी कीमत काफी अधिक होती थी और जो भारत से इंग्लैण्ड भेजा जाता था उसकी कीमत काफी कम होती थी इसलिये बिटेªन हमेशा व्यापार अधिशेष की अवस्था में रहता था।
प्रश्न 9. ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर प्रथम विश्व युद्ध के क्या प्रभाव पड़े?
उत्तर-
- युद्ध के बाद भारतीय बाजार में अपनी वर्चस्व वाली स्थिति को प्राप्त करना ब्रिटेन के लिये मुश्किल हो गया।
- ब्रिटेन को विश्व स्तर पर अब जापान से भी मुकाबला करना था।
- अमेरिका से लिये गये कर्जे की वजह से ब्रिटेन युद्ध के बाद भारी विदेशी कर्जे में डूब गया।
- युद्ध के कारण आया आर्थिक उछाल जब शान्त होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा तथा और बेरोजगारी बढ़ने लगी।
- इसी समय सरकार ने भारी भरकम युद्ध सम्बन्धी व्यय में कटौती आरम्भ कर दी ताकि शांतिकालीन करों के सहारे उनकी भरपाई की जा सके। इन प्रयासों से रोजगार भारी मात्रा में समाप्त हो गये।
प्रश्न 10. आर्थिक महामंदी के कारण बताइये?
उत्तर-
- महामंदी की शुरूआत 1929 से हुई और यह संकट 30 के दशक के मध्य तक बना रहा इस दौरान दुनियाँ के ज्यादातर हिस्सों में उत्पादन, रोजगार, आय और व्यापार में बहुत बड़ी गिरावट दर्ज की गई।
- युद्धोत्तर विश्व अर्थव्यवस्था बहुत कमजोर हो गई थी। कीमते गिरी तो किसानों की आय घटने लगी और आमदनी बढ़ाने के लिये किसान अधिक मात्रा में उत्पादन करने लगे।
- बहुत सारे देशों ने अपनी निवेश सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिये अमेरिका से कर्ज लिया।
- अमेरिकी उद्योगपतियों ने मंदी की आशंका को देखते हुये यूरोपीय देशों को कर्ज देना बन्द कर दिया।
- हजारों बैंक दीवालिया हो गये।
प्रश्न 11. अमेरिका जाने वाले नये समुद्री रास्तों की खोज के बाद विश्व में क्या बदलाव हुए ? तीन उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर-
- आलू का इस्तेमाल शुरू करने पर यूरोप के गरीबों की जिन्दगी में बदलाव आया। उनका भोजन बेहतर हो गया और औसत उम्र बढ़ने लगी।
- गुलामों का व्यापार शुरू हो गया।
- यूरोप में धार्मिक टकराव होते रहते थे इसलिए हजारों लोग यूरोप से भागकर अमेरिका चले गए।
प्रश्न 12. 19वीं सदी में हजारों लोगों द्वारा यूरोप से भागकर अमेरिका जाने के क्या कारण थे ?
उत्तर-
- कॉर्न-ला को समाप्त करने के बाद कम कीमतों में सामान का आयात ।
- भयानक बीमारियों का फैलना
- धार्मिक टकराव।
प्रश्न 13. सूती वस्त्र उद्योगों के औद्योगिकरण का ब्रिटेन में क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
- आयात शुल्क के कारण ब्रिटेन में भारतीय कपास के आयात में तेजी से कमी आई।
- भारतीय वस्त्रों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
- बाद में निर्माण किए गए सूती उत्पादों के निर्यात में कमी आने के पश्चात् ब्रिटिश निर्माताओं ने बहुत ही सस्ती कीमत पर भारत से कपास का आयात आरम्भ कर दिया।
प्रश्न 14. व्यापार अधिशेष से क्या अभिप्राय है ? भारत के साथ ब्रिटेन व्यापार अधिशेष की अवस्था में क्यों रहा?
उत्तर-
- जब निर्यात मूल्य आयात मूल्य से अधिक होता है तो इसे व्यापार अधिशेष कहा जाता है।
- 19वीं शताब्दी में बाजारों में ब्रिटेन के बने माल की अधिकता ही गई थी। भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को भेजे जाने वाले खाद्यान्न व कच्चे मालों के नियति में इजाफा हुआ।
- लेकिन जी माल भारत भेजा जाता था उसकी कीमत काफी अधिक होती थी और जो भारत से इंग्लैण्ड भेजा जाता था उसकी कीमत काफी कम होती थी इसलिए ब्रिटेन हमेशा व्यापार अधिशेष की अवस्था में रहता था।
प्रश्न 15. ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर प्रथम विश्व युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
- युद्ध के बाद भारतीय बाजार में अपनी वर्चस्व वाली स्थिति को प्राप्त करना ब्रिटेन के लिए कठिन हो गया।
- ब्रिटेन को विश्व स्तर पर अब जापान से भी मुकाबला करना था।
- अमेरिका से लिए गए कर्जे की वजह से ब्रिटेन युद्ध के बाद भारी विदेशी कर्जे में डूब गया।
- युद्ध के कारण आया आर्थिक उछाल जब शान्त होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी।
- इसी समय सरकार ने भारी भरकम शांतिकालीन करों के सहारे उनकी भरपाई करने की कोशिश की। इन प्रयासों से रोजगार भारी मात्रा में समाप्त हो गए।
प्रश्न 16. आर्थिक महामंदी के कारण बताइये ?
उत्तर-
- महामंदी की शुरूआत 1929 से हुई और यह संकट 30 के दशक के मध्य तक बना रहा। इस दौरान विश्व के ज्यादातर हिस्सों में उत्पादन, रोजगार, आय और व्यापार में बहुत बड़ी गिरावट दर्ज की गई।
- युद्धोतर अर्थव्यवस्था बहुत कमजोर हो गई थी। कीमतें गिरीं तो किसानों की आय घटने लगी और आमदनी बढ़ाने के लिए किसान अधिक मात्रा में उत्पादन करने लगे।
- बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्ज लिया।
- अमेरिकी उद्योगपतियों ने मंदी की आशंका को देखते हुए यूरोपीय देशों को कज देना बन्द कर दिया।
- हजारों बैंक दिवालिया हो गये।
प्रश्न 17. भारतीय अर्थव्यवस्था पर महामन्दी का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
- 1928 से 1934 के बीच देश का आयात-नियांत घट कर आधा रह गया।
- अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें गिरने से भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत तक गिर गई।
- किसानों और काश्तकारों को ज्यादा नुकसान हुआ।
- महामंदी शहरी जनता एवं अर्थव्यवस्था के लिए भी हानिकारक।
- 1931 में मंदी चरम सीमा पर थी जिसके कारण ग्रामीण भारत असंतोष व उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था।
प्रश्न 18. 19वीं सदी की अनुबंध व्यवस्था को नयी दास व्यवस्था के रूप में वर्णित किया है। उपयुक्त उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए?
उत्तर-
- एजेंट मजदूरों को फुसलाने के लिए झूठी जानकारियाँ देते थे।
- एजेंटों द्वारा मजदूरों का अपहरण भी कर लिया जाता था।
- नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थी।
- वेतन बहुत कम था। काम ठीक से न कर पाने के कारण वेतन काट लिया जाता था।
- मजदूरों के पास कानूनी अधिकार न के बराबर थे।
प्रश्न 19. वैश्वीकरण का क्या अर्थ है? अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन प्रकार के प्रवाहों का वर्णन कीजिए ?
उत्तर-
- किसी देश की अर्थव्यवस्था विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के साथ जुड़ी होती है।
- पहला प्रवाह व्यापार का होता है जो मुख्यतः कपड़ों एवं गेहूँ के व्यापार तक सीमित था।
- दूसरा प्रवाह श्रम का है जिसमें लोग रोजगार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं।
- तीसरा प्रवाह पूँजी का होता है जिसे अल्प या दीर्घ अवधि के लिए दूर-दराज के इलाकों में निवेश कर दिया जाता है।
प्रश्न 20. ब्रेटन-वुड्स समझौते का क्या अर्थ है?
उत्तर-
- 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशायर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्थापना हुई।
- ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधारित होती थी।
प्रश्न 21. अफीम युक्द्र का क्या अर्थ है। चीन पर अफीम युद्ध के प्रभावों का वर्णन कीजिए ?
उत्तर- अफीम युद्ध का अर्थ – जब इंग्लैंड ने चीनियों पर अफीम आयात करने का दबाव डाला तो दोनों देशों के बीच संघर्ष उत्पन्न हो गया जिसकी अफीम युद्ध कहा जाता है।
- चीनियों का शारीरिक व नैतिक पतन हुआ।
- चीन को हजाने के रूप में 5 बन्दरगाह ब्रिटिश व्यापारियों के लिए खोलने पड़े।
- बिना किसी अवधि के हाँगकोग को ब्रिटेन को सौप दिया गया।