कबीर की साखी अर्थ और प्रश्न अभ्यास सहित
कबीर की साखी अर्थ सहित
कबीर दास का जीवन परिचय
कबीर (1398-1518)
कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। गुरु रामानंद के शिष्य कबीर ने 120 वर्ष की आयु पाई। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं चिरनिद्रा में लीन हो गए।
कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ अपने चरम पर थीं। कबीर क्रांतदर्शी कवि थे। उनकी कविता में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उनकी कविता सहज ही मर्म को छू लेती है। एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर उन्होंने गहरी और तीखी चोट की है तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन के भावपूर्ण गीत गाए हैं। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है।
कबीर की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा थी। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपने सबद और साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया।
कबीर की साखी अर्थ सहित
‘साखी’ शब्द का अर्थ
‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही तद्भव रूप है। ‘साक्षी’ शब्द साक्ष्य से बना है, जिसका अर्थ होता है – प्रत्यक्ष ज्ञान। यह ज्ञान गुरु अपने शिष्य को प्रदान करता है। ‘साखी’ वस्तुतः दोहा छंद है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा और अंत में जगण। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी।
ऐसी बाँणी बोलिए मन का आपा खोई।
अपना तन सीतल करै औरन कैं सुख होई।।
कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटी गया दीपक देख्या माँहि॥
सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।
बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥
साखियों का प्रतिपाद्य
कबीर इस पाठ में संकलित साखियों के माध्यम से कबीरदास जी मनुष्य को नीति का संदेश देते हैं।
पहली साखी के द्वारा कबीरदास जी मीठी वाणी के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। मीठी वाणी बोलने वाले तथा सुनने वाले दोनों को सुख पहुँचाती है।
दूसरी साखी में कबीरदस जी कहते हैं कि ईश्वर तो प्रत्येक मनुष्य के हृदय में निवास करता है, परंतु मनुष्य उसे चारों ओर ढूँढ़ता फिरता है। जिस प्रकार कस्तूरीमृग अपनी कस्तूरी को सारे वन में ढूँढ़ता फिरता है, उसी प्रकार मनुष्य ईश्वर को अन्यत्रा ढूँढ़ता रहता है।
तीसरी साखी में कबीरदास जी कहते हैं कि अहं के मिटने पर ही ईश्वर की प्राप्ति होती है तथा अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता
चौथी साखी में कबीरदास जी कहते हैं कि साध्क ‘विचारक’ ही दुखी और चिंतामग्न है तथा वह ईश्वर के लिए सदा व्याकुल रहता है।
पाँचवीं साखी में कबीरदास जी विरह की व्याकुलता के विषय में बताते हैं कि राम यानी ईश्वर के विरह में व्याकुल व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। अगर वह जीवित रहता भी है तो वह पागल हो जाता है।
छठी साखी में कबीरदास जी निंदक का महत्व स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि निंदक साबुन तथा पानी के बिना ही स्वभाव को निर्मल कर देता है।
सातवीं साखी में कबीरदास जी केवल पुस्तक पढ़-पढ़कर पंडित बने लोगों की निंदा करते हैं तथा सच्चे मन से प्रभु का नाम स्मरण करने को महत्व देते हैं।
आठवीं साखी में कबीरदास जी विषय-वासना रूपी बुराइयों को दूर करने की बात करते हैं। इस प्रकार सभी साखियाँ मनुष्य को नीति संबंधी संदेश देती हैं।
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं कि हमें ऐसी बोली बोलनी चाहिए जो हमारे हृदय के अहंकार को मिटा दे अर्थात जिसमें हमारा अहं न झलकता हो, जो हमारे शरीर को भी ठंडक प्रदान करे तथा दूसरों को भी सुख प्रदान करे। तात्पर्य यह है कि हमारे तन को शीतलता प्रदान करे तथा सुनने वाले ‘श्रोता’ को भी मानसिक सुख प्रदान करे।
काव्य-सौंदर्य:
भाव पक्ष: वाणी की मधुरता का महत्व बताया गया है।
कला पक्ष:
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सहज एवं सरल भाषा का प्रयोग किया गया है। भाषा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
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‘बाँणी बोलिए’ में अनुप्रास अलंकार है।
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सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
कस्तूरी कुंडलि बसै, मग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि घटि रॉम है, दुनियाँ देखै नाँहि।।
व्याख्या: कबीरदास जी उदाहरण द्वारा ईश्वर की महत्ता स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि कस्तूरी तो हिरन की नाभि में स्थित होती है, परंतु वह उसे वन में ढूँढ़ता पिफरता है अर्थात वह अपने अंदर बसी कस्तूरी को नहीं पहचान पाता है। यही स्थिति मनुष्य की भी है। ईश्वर तो प्रत्येक हृदय में निवास करता है और मनुष्य उसे इध्र-उध्र ढूँढ़ता पिफरता है अर्थात मनुष्य अपने भीतर ईश्वर को न ढूँढ़कर उसे प्राप्त करने के लिए स्थान-स्थान पर यानी मंदिर-मस्जिद में भटकता रहता है।
काव्य-सौंदर्यः
भाव पक्ष:
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कबीर ने ईश्वर का स्थायी निवास मनुष्य के हृदय को ही बताया है।
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मृग का उदाहरण देकर बात को रूप से स्पष्ट किया गया है।
कला पक्षः
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सरल एवं सहज सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
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‘कस्तूरी-कुंफडलि’, ‘दुनिया-देखै’ में अनुप्रास अलंकार है।
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‘घटि-घटि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँध्यारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मेरे अंदर अहंकार था, तब तक मुझे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई थी। अब जब कि मेरे अंदर का अहं मिट चुका है, तब मुझे ईश्वर की प्राप्ति हो गई है। जब मैंने ज्ञान रूपी दीपक के दर्शन कर लिए, तब अज्ञान रूपी अंधकार मिट गया अर्थात अहं भाव को त्याग कर ही मनुष्य को ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।
काव्य-सौंदर्यः
भाव पक्षः
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इसमें ईश्वर-प्राप्ति का उपाय बताया गया है।
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‘अहं’ भाव को ईश्वर-प्राप्ति में बाधक बताया गया है।
कला पक्षः
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‘मैं’ शब्द अहंभाव के लिए प्रयोग किया गया है।
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‘हरि है’, ‘दीपक देख्या’ में अनुप्रास अलंकार है।
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‘अँध्यारा’ अज्ञान का प्रतीक है और ‘दीपक’ ज्ञान का प्रतीक।
सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै।।
व्याख्याः कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार सुखी है क्योंकि यह केवल खाने और सोने का काम करता है अर्थात सब प्रकार की चताओं से परे है। इनमें दुखी केवल कबीरदास हैं क्योंकि वे ही जागते हैं और रोते हैं। आशय यह है कि सांसारिक सुखों में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति सुखपूर्वक समय व्यतीत करते हैं और जो प्रभु के वियोग में जागते रहते हैं, उन्हें कहीं भी चैन नहीं मिलता। वे तो केवल संसार की दशा देखकर रोते रहते हैं। चिंतनशील मनुष्य कभी भी चैन की नींद नहीं सो सकता।
काव्य-सौंदर्यः
भाव पक्ष:
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चिंतनशील मनुष्य की व्याकुलता को प्रकाशित किया गया है।
कला पक्षः
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भाषा सहज-सरल है और भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
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‘सुखिया सब संसार’, ‘दुखिया दास’ में अनुप्रास अलंकार है।
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सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है।
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ।।
व्याख्या: कबीरदास जी विरही मनुष्य की मनःस्थिति की चर्चा करते हुए कहते हैं कि विरह रूपी सर्प शरीर में निवास करता है। उस पर किसी प्रकार का उपाय या मंत्र भी असर नहीं करता। उसी प्रकार राम यानी ईश्वर के वियोग में मनुष्य भी जीवित नहीं रह सकता। यदि वह जीवित रह भी जाता है तो उसकी स्थिति पागल व्यक्ति जैसी हो जाती है।
काव्य-सौंदर्य:
भाव पक्ष:
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राम-वियोगी मनुष्य की दशा का मार्मिक चित्राण किया गया है।
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विरह की तुलना सर्प से की गई है।
कला पक्ष:
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भाषा सरस-सरल और भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
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‘बिरह भुवंगम’ में रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है।
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सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणी बिना, निरमल करै सुभाइ।।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं कि निंदा करने वाले व्यक्ति को अपने पास रखना ही चाहिए, हो सके तो उसे अपने आँगन में कुटिया ‘झोंपड़ी’ बनाकर रखना चाहिए। वह हमें साबुन और पानी के प्रयोग के बिना ही हमारे स्वभाव को स्वच्छ कर देता है अर्थात अपनी निंदा सुनकर हम अपनी त्राटियों को सुधर लेते हैं। इससे हमारी स्वभावगत बुराइयाँ दूर हो जाती हैं।
काव्य-सौंदर्यः
भाव पक्षः
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इसमें निंदक के महत्व को दर्शाया गया है।
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निंदक को अपना परम हितैषी समझना चाहिए।
कला पक्ष:
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भाषा सहज एवं सरल है तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
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‘निंदक-नेड़ा’ में अनुप्रास अलंकार है।
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सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ऐके अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ।।
शब्दार्थ:
पोथी = पुस्तक, ग्रंथ,
पढ़ि-पढ़ि = पढ़-पढ़ कर,
जग = संसार,
मुवा = मर गया,
भया = हुआ, बना,
ऐके = एक ही,
कोइ = कोई,
अषिर = अक्षर,
पीव = प्रियतम, ईश्वर।
व्याख्याः कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार पुस्तकें पढ़-पढ़ कर मृत्यु को प्राप्त हो गया, परंतु अभी तक कोई भी पंडित नहीं बन सका। यदि मनुष्य ईश्वर-भक्ति का एक अक्षर भी पढ़ लेता तो वह अवश्य ही पंडित बन जाता अर्थात ईश्वर ही एकमात्र सत्य है, इसे जानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी और पंडित होता है।
काव्य-सौंदर्यः
भाव पक्षः
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ईश्वर-प्रेम तथा ईश्वर-भक्ति से ही ज्ञान-प्राप्ति होती है।
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पुस्तकों को पढ़कर ‘रट कर’ ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है।
कला पक्षः
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भाषा सहज एवं सरल है तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
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‘पोथी पढ़ि पढ़ि’ में अनुप्रास अलंकार है।
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सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।
शब्दार्थ:
जाल्या = जलाया,
आपणाँ = अपना,
मुराड़ा = जलती हुई लकड़ी,
जालौं = जलाउँ,
तास का = उसका,
जे = जो।
व्याख्याः कबीरदास जी कहते हैं कि हमने पहले अपना घर जलाया, पिफर जलती हुई लकड़ी को हाथ में ले लिया। अब हम उसका घर जलाएँगे, जो हमारे साथ चलेगा अर्थात पहले हम ने अपने घर की बुराइयाँ नष्ट की और अब हम अपने साथियों की बुराइयाँ दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाने चल पड़े हैं।
काव्य-सौंदर्य:
भाव पक्षः
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कबीरदास जी समाज को सुधरने का महान कार्य करना चाहते हैं।
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वे चारों ओर ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित करना चाहते हैं।
कला पक्षः
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भाषा सहज एवं सरल है तथा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
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घर एवं मशाल का प्रतीकात्मक प्रयोग किया गया है।
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सधुक्कड़ी भाषा और प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
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NCERT Solutios
स्पर्श पाठ-01
प्रश्न अभ्यास
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1. मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर- मीठी वाणी का प्रभाव धमाकारिक होता है। मीठी वाणी जीवन में आत्मिक सुख व शांति प्रदान करती है। गीठी वाणी मन से जोध और घृणा के भाव नष्ट कर देती है। इसके साथ ही हमारा अंत:करण भी प्रसन्न हो जाता है। इसके प्रभाव स्वराप औरों को सुख और शीतलता प्राप्त होती है। मीठी वाणी के प्रभाव से मन में स्थित शवता, कटता व आपसी ईया-देष के भाव समास हो जाते है।
प्रश्न-2 दीपक दिखाई देने पर आँधियारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए
उत्तर:- कवि के अनुसार जिस प्रकार दीपक के जलने पर अंधकार अपने आप दूर हो जाता है और उजाला फैल जाता है। उसी प्रकार ज्ञान रूपी दीपक जब हृदय में जलता है तो अज्ञान रुपी अहंकार का अंधकार मिट जाता है। यहाँ दीपक’ शान के प्रकाश का प्रतीक है और अंधियारा’ अशान का प्रतीक है। मन के विकार अर्थात् अहंकार, संशय, क्रोध, मोह, लोभ आदि नष्ट हो जाते है, तभी उसे सर्वव्यापी ईश्वर की प्राप्ति भी होती है।
प्रश्न-3 ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
उत्तर:- हमारा मन अज्ञानता, अहंकार और विलासिताओं में डूबा है। ईश्वर सब ओर व्याप्त है। ईश्वर निराकार है। हम मन के अज्ञान के कारण ईश्वर को नहीं पहचान पाते। कबीर के मतानुसार कण-कण में छिपे परमात्मा को पाने के लिए शान का होना अत्यंत आवश्यक है। अज्ञानता के कारण जिस प्रकार मृग उसकी नाभि में स्थित कस्तूरी को ढूँढ़ने के लिए पूरे जंगल में घूमता रहता है, जो उसके पास ही होती है । उसी प्रकार हम अपने मन में छिपे ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि जगहों पर दूंछने की कोशिश करते हैं।
प्रश्न-4 संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन ?
उत्तर:- कबीर के अनुसार जो व्यक्ति केवल सांसारिक सुखों में डूबा रहता है और जिसके जीवन का उद्देश्य केवल खाना, पीना और सोना है। वही व्यक्ति सुखी है।
प्रश्न-5 अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुनाया है।
उत्तर:- कबीर का कहना है कि स्वभाव को निर्मल रखने के लिए नन का निर्मल होना आवश्यक है। हम अपने स्वभाव को निर्मल. निष्कपट और सरल बनाए रखना चाहते हैं तो हमें निंदक को अपने आँगन में कुटिया बनाकर रखना चाहिए। नियक हमारे सबसे अच्छे हितेषी होते हैं। उनके द्वारा बताई गई त्रुटियों को दूर करके हम अपने स्वभाव को निर्मल बना सकते है।
प्रश्न-6 एक अपिर पीव का, पदै सुपंडित होई – इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है
उत्तर:- कवि इस पंक्ति द्वारा शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा भक्ति व प्रेम की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करना चाहते हैं। ईश्वर को पाने के लिए एक अक्षर प्रेम का अर्थात् ईश्वर के नाम का एक अक्षर लेना ही पर्याप्त है। लोगों ने बड़ी-बड़ी पोथी या ग्रंथ पढ़े पर उनमें से कोई भी पंडित नहीं बन सका, किंतु परमात्मा के नाम का केवल एक अक्षर स्मरण करने से ही सच्चा ज्ञानी बना जा सकता है। इसके लिए मन को सांसारिक मोह-माया से हटा कर ईश्वर भक्ति में लगाना पड़ता है।
प्रश्न-7 कबीर की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:- कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। अत: उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ भी कहा जाता है। वे जैसा बोलते थे – उनके काव्य संग्रह ‘साखी में वैसा ही लिखने का प्रयास किया गया है। कबीर की भाषा में लयबद्धता, उपदेशात्मकता, प्रवाह, सहजता, सरलता शैली है। लोकभाषा का भी प्रयोग हुआ है; जैसे – खायै, नेडा, मुवा, जाल्या, आँगणि आदि।
निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए –
प्रश्न-8 बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
उत्तर:- कबीरदास कहते है कि विरह-न्यथा विष से भी अधिक मारक है। विरह का सर्प शरीर के अंदर निवास कर रहा है, जिस पर किसी तरह का मंत्र लाभप्रद नहीं हो पा रहा है। सामान्यत: साँप बाहा अंगों को डसता है, जिस पर मंत्रादि कामयाब हो जाते है किन्तु राम से विरह का सर्प तो शरीर के अंदर प्रविष्ट हो गया है, यहाँ यह लगातार डसता रहता है। कवि कहते हैं कि जिस व्यक्ति के हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम से विरह का सर्प बस जाता है, उस पर कोई मंत्र असर नहीं करता है. अर्थात भगवान के विरह में कोई भी जीव या तो जीवित नहीं रहता है या पागल हो सकता है।
प्रश्न-9 कस्तूरी कुंडलि बसै. मृग ढूँढे बन माहि।
उत्तर:- इस पंक्ति में कवि कहता है कि जिस प्रकार ऋण की नाभि में कस्तूरी रहती है किन्तु वह उसे जंगल में ट्रैकता है। उसी प्रकार मनुष्य भी अज्ञानतावश वास्तविकता को नहीं जानता कि ईस्वर हर घट अर्थात् देह या कण-कण में निवास करता है और उसे प्राप्त करने के लिए धार्मिक स्थलों, अनुष्ठानों में ढूंढता रहता है।
प्रश्न-10 जब मैंथा तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि।
उत्तर:- इस पंक्ति द्वारा कवि का कहना है कि जब तक यह मानता था कि मेंहूँ अर्थात् मेरे मन में अहंकार था तब तक मुझे भगवान् की प्राशि नहीं हुई और जब भगवान् की प्राप्ति हो गई है, तो अब मेरे मन का मैं (अहंकार) नहीं रहा।
प्रश्न-11 अंधेरा और उजाला एक साथ, एक ही समय, कैसे रह सकते हैं?
उत्तर:- जब तक मनुष्य में अशान रुपी अंधकार छाया है. यह ईश्वर को नहीं पा सकता। अर्थात् आहंकार और ईश्वर का साथ-साथ रहना असंभव है। यह भावना दूर होते ही वह ईश्वर को पा लेता है।
प्रश्न-12 पोथी पढ़ि पढ़ि जम मुवा, पंडित भया न कोइ।
उत्तर:- कवि के अनुसार बड़े-बड़े ग्रंथ, शाख पढ़ने भर से कोई ज्ञानी नहीं होता, अर्थात् ईश्वर की प्राशि नहीं कर पाता। प्रेम से ईश्वर के नाम का स्मरण करने से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है। प्रेम में बहुत शक्ति होती है। जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का केवल एक अक्षर भी जपता है (या प्रेम का एक अक्षर भी पढ़ लेता है। वही सध्या ज्ञानी (पंडित) होता है। वही परमात्मा का सध्या भक्त होता
प्रश्न-13 पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रुप उदाहरण के अनुसार लिखिए – उदाहरण-जि-जीना
औरन, माहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, औंगणि, साबण, मुवा, पीव, जालौं, तास।
उत्तर:- जिवे -जीता है
औरन – औरों को
माहि – में (के अंदर)
देख्या – देखा
भुवंगम – भुयंग (साँप)
आँगणि – आँगन में
साबण – साबुन
मुवा – मर गए
पीय – प्रिय (प्रेम)
जाला – जलाया
तास – ताश का (नष्ट होने वाला)